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वंदेमातर गीत की शुरुआत
गीत ‘आनंदमठ’ उपन्यास में सीमित रहने के बाद, 1896 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बेडन स्क्वायर अधिवेशन में रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा गाए जाने के बाद यह एक परंपरा बन गया। आज भी कांग्रेस अधिवेशनों, लोकसभा और विधानसभा के सत्रों की शुरुआत ‘वंदे मातरम्’ के पाठ से होती है।
1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में कोलकाता के टाउन हॉल में बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा हुए थे, जहां किसी ने “वंदे मातरम्” का नारा लगाया। यह नारा तेजी से लोकप्रिय हुआ और जल्द ही यह पूरे देश में फैल गया। ब्रिटिश शासन ने इस गीत और नारे पर प्रतिबंध लगा दिया, जिससे इसकी लोकप्रियता और बढ़ गई।
वंदेमातरम की पहली रिकॉर्डिंग
इस गीत की लोकप्रियता को देखते हुए विभिन्न रिकॉर्ड कंपनियों ने इसे रवींद्रनाथ ठाकुर, बाबू सुरेंद्रनाथ बनर्जी, सत्यभूषण गुप्त और आर.एन. बोस की आवाज में रिकॉर्ड किया। 1907 में हेमेंद्र मोहन बोस ने इसे व्यावसायिक रूप से जारी किया, हालांकि पुलिस ने उनके रिकॉर्ड और फैक्ट्री को नष्ट कर दिया। फिर भी, कुछ प्रतियां बेल्जियम और पेरिस में बच गईं। इस तरह आज हम रवींद्रनाथ ठाकुर की आवाज में “वंदे मातरम्” सुन सकते हैं, जिसमें उन्होंने इसे ऊंचे, तीखे स्वर में गाया।
स्वतंत्रता-पूर्व काल
प्रतिबंध के बावजूद, यह गीत और भी अधिक लोकप्रिय हुआ और प्रेरणा का स्रोत बन गया। “वंदे मातरम्” को ‘वैदिक मंत्र’ की तरह का दर्जा मिला और यह क्रांतिकारियों के नारे के रूप में प्रयोग होने लगा। पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने इसे कई वर्षों तक कांग्रेस अधिवेशनों में गाया। 1931 में उनके निधन के बाद पं. ओंकारनाथ ठाकुर ने इसे गाने की जिम्मेदारी ली, जिसमें उन्होंने इसे धीमी लय में प्रस्तुत किया।
राजनीतिक संगठनों के अलावा, कई संगीतकारों ने इसे मातृभूमि के प्रति भक्ति व्यक्त करने वाला मुख्य गीत माना। 1928 में विष्णुपंत पागनीस ने इसे राग सारंग में रिकॉर्ड किया। विभिन्न गायकों ने इसे अलग-अलग धुनों में पेश किया।
कोरस / ऑर्केस्ट्रल “वंदे मातरम्”
कई सामूहिक और वाद्य रूपांतर रिकॉर्ड किए गए। सुभाषचंद्र बोस के सुझाव पर तिमिर बरन ने इसे राग दुर्गा में पेश किया, जिसे आज़ाद हिंद सेना की परेडों में बजाया गया। कई संगीतकारों ने इसे स्वतंत्र भारत का राष्ट्रगान बनने की संभावना के तहत विशेष धुनें तैयार कीं।
हालांकि, पंडित नेहरू ने इन्हें अस्वीकार कर दिया। 24 जनवरी 1950 को संविधान समिति की बैठक में राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने “जन गण मन” को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया और “वंदे मातरम्” को राष्ट्रगीत के दर्जे पर रखा। इससे सभी प्रयासों का अंत हुआ।
स्वतंत्रता के बाद का युग
1947 में यह गीत फिल्म ‘अमर आशा’ में दिखाई दिया। इसके बाद, 1951 में ‘आंदोलन’ और 1952 में ‘आनंदमठ’ में इसकी लोकप्रियता बढ़ी। इसके साथ ही, विभिन्न फिल्मों और रिकॉर्डों में इसके कई स्वरूप सामने आए।
आकाशवाणी के लगभग 800 केंद्रों के लिए विशेष रिकॉर्ड तैयार किए गए, जो हर सुबह प्रसारित होते हैं। संसद और विधानसभाओं के उद्घाटन सत्र में इसका गान भी होता है, जिसमें नागरिकों को सावधान मुद्रा में खड़ा होने की अपेक्षा की जाती है।
स्वर्ण जयंती और “वंदे मातरम्”
1997 में स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती पर ए.आर. रहमान का एल्बम “वंदे मातरम् – माँ तुझे सलाम” जारी हुआ। इस आयोजन के दौरान कई विवाद भी हुए। 14 अगस्त 1997 की मध्यरात्रि को इंडिया गेट पर इसका आयोजन हुआ। पं. भीमसेन जोशी ने इसे शास्त्रीय शैली में प्रस्तुत किया, जिसमें सांसदों ने तालियाँ बजाईं।
आज भी यह बहस जारी है कि “वंदे मातरम्” को राष्ट्रगान का दर्जा मिले या नहीं। कुछ कट्टरपंथी इसे “हिंदू राष्ट्र” का गान भी मानते हैं।
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