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अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की राजनीतिक यात्रा
नई दिल्ली। भारतीय जनता पार्टी (BJP) के महत्वपूर्ण आधारस्तंभ माने जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी भारतीय राजनीति में दशकों तक अटूट रही। हालांकि, एक समय ऐसा भी था जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी अलग राजनीतिक पार्टी स्थापित करने पर विचार किया था। यह जानकारी वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने प्रधानमंत्री संग्रहालय एवं पुस्तकालय में आयोजित एक सार्वजनिक व्याख्यान के दौरान साझा की। यह व्याख्यान अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती की पूर्व संध्या पर हुआ और इसका मुख्य विषय “अटल बिहारी वाजपेयी का जीवन और योगदान” था।
1984 का लोकसभा चुनाव और वाजपेयी का निर्णय
नीरजा चौधरी के अनुसार, जब 1984 के लोकसभा चुनाव में भाजपा केवल दो सीटें प्राप्त कर पाई और वाजपेयी ग्वालियर से चुनाव हार गए थे, तब उनकी स्थिति गंभीर हो गई थी। उस समय, आडवाणी पार्टी में तेजी से उभरे रहे। वाजपेयी ने इस परिस्थिति से निराश होकर भाजपा से अलग होने और नई पार्टी बनाने का विचार किया, लेकिन यह विचार अधिक समय तक नहीं टिका और उन्होंने भाजपा के साथ बने रहने का निर्णय लिया।
पोखरण-2 और आडवाणी की निराशा
नीरजा चौधरी ने पोखरण-2 परमाणु परीक्षण से जुड़ा एक संवेदनशील मामला भी बताया, जिसने दोनों नेताओं के बीच बढ़ते तनाव को प्रदर्शित किया। उन्होंने बताया कि अटल बिहारी वाजपेयी ने इस परीक्षण की जानकारी अपने प्रधान सचिव बृजेश मिश्रा और तीनों सेना प्रमुखों के साथ साझा की, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी को इस निर्णय में शामिल नहीं किया गया। मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों को भी केवल दो दिन पहले इस परीक्षण के बारे में जानकारी दी गई, जिसमें कोई खास तारीख नहीं बताई गई।
आडवाणी का भावनात्मक क्षण
चौधरी ने याद किया कि 11 मई 1998 को जब वह नॉर्थ ब्लॉक में आडवाणी से मिलीं,तो वे एकांत में बैठे थे और उनकी आंखों में आंसू थे। आडवाणी को यह गहरा दुख हुआ कि सैकड़ों मित्रता और पार्टी की पुरानी प्रतिबद्धता के बावजूद उन्हें इस मामले में विश्वास में नहीं लिया गया।
1990 के दशक में वाजपेयी का बढ़ता प्रभाव
नीरजा चौधरी ने कहा कि 1990 के दशक में अटल बिहारी वाजपेयी की सर्वमान्य छवि और अन्य दलों के साथ अच्छे संबंध उन्हें बेहद प्रभावशाली बनाते थे। उन्होंने यह भी बताया कि वाजपेयी और पूर्व प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंह राव के बीच करीबी संबंध थे, जो दोनों के ब्राह्मण होने या 1977 में विदेश मंत्री रहते समय की पुरानी जान-पहचान के कारण हो सकता है।
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