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हिंदी अनुवाद
पानी की कोई कमी नहीं है, हरियाली बिखरी हुई है। फल और फूल भरपूर हैं, रात की छवि आच्छादित है।
मलयानिल मृदु बहती है, शीतलता की अनुभूति होती है। सुखदायक, वरदान स्वरूप तेरी, आकृति मुझे बेहद भाती है। वन्दे मातरम्!
तीस करोड़ लोगों की प्रतिभा कल, सुनी नहीं जाती। उसकी दुग्ध धाराओं की चमक, विकास जहां प्राप्त होती है। तिस पर भी ‘तू अबला है’, यह बात पीड़ा उत्पन्न करती है। हे तारिणी! हे बहुधारिणी! तू शत्रु को काट गिराती है। वन्दे मातरम्!
तू धर्म है, कर्म भी तू ही है। तू विद्या की देवी है। तू ही हृदय और प्राण, तू ही सुगुणों की प्रतीक है। बाहुबल तू ही प्रदान करती है, तेरी भक्ति महामानव के समान है। प्रति घर, प्रति मन्दिर के भीतर, तू ही सदा समाई रहती है। वन्दे मातरम्!
हे दुर्गा! तेरे दस भुजाएँ हैं, दुष्टता के निवारण की प्रतीक है। हे कमले! हे अन्नपूर्णे! तू सुख की देवी है। भारत के किसी भी हिस्से में ऐसा पापी प्राणी नहीं है, जो यह नहीं कहे कि तू हमारी महामहिम महरानी है। वन्दे मातरम्!
– आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
उर्दू अनुवाद
सलाम, ऐ मादरे-वतन सलाम, ओ पुरअम्तिहान, पुरअसर, तराताज चंदनी हवावाली, फुले अंबर, खुशअतर पुरतरंग भर, पुरबहार सरसज।
खंदाजन, शीरीं गुत्कार, पुरसुकून, बरकतवाली मां तुझे सलाम!
ओ मां, तेरे करोड़ों बेटे बुलंदी से आवाज देते हैं, उनके करोड़ों हाथों में शाम की अब्दार है, तब कौन कहता है कि तू नाचार है। ओ दुश्मनों को नेस्तनाबूद करने वाली, मां तुझे सलाम!
ओ मां, तू ही रूप है, तू ही मजहब है, तू ही दिल है, तू ही गैवदां है। दिल में तू परस्तारी है, हर सनमखाने में तेरी मूर्ति स्थापित है। तू ही दस हाथों से हिफाजत करने वाली दुर्गा है, तू ही दौलत की देवी कमला है।
तुझे हम सलाम पेश करते हैं।
पुरआव पुरसमर, ऐ पुरज़ौवत सलाम! सरसब्ज़ पुरशकीन खंदन ए सरज़मीं परवरिशगाह, ऐ मादरे-वतन सलाम!
– भानु
गीत के देश-भर में लोकप्रिय होने से पहले की कुछ रोचक घटनाएँ
- ‘वंदे मातरम्’ गीत की रचना पूज्यश्री बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने वर्ष 1875 में की थी। सही तिथि 7 नवंबर 1875 है।
- गीत की रचना के तुरंत बाद श्री जदुनाथ भट्टाचार्य से इस पर धुन तैयार करने को कहा गया।
- 1876 में, बंगाल के हुगली ज़िले के श्री गोपाल चंद्र धर ने इसे राग देश-मल्हार में गाया।
- बाद में स्वयं रचनाकार ने इसे अपने उपन्यास ‘आनंदमठ’ में शामिल किया, जो 1882 में प्रकाशित हुआ।
- 1885 में, रवींद्रनाथ टैगोर की भतीजी प्रतिभा देवी ने इस गीत की स्वरलिपि तैयार की।
- 1896 में, कोलकाता के बीडन स्क्वायर में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में रवींद्रनाथ ठाकुर ने इसे गाया।
- 1901 में, पश्चिमी संगीत के विशेषज्ञ श्री दक्षिणा चरण सेन ने इसे गाया।
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